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रविवार, 13 सितंबर 2020

वो शव हथियार के साथ जम चुके थे, हम हथियार को खींचते तो शरीर के टुकड़े भी साथ निकलकर आ रहे थे

भारत-चीन सीमा पर हालात तनावपूर्ण हैं। सर्दियां बस शुरू होने को है। ये वक्त होता है जब ऊंचाई पर बनी पोस्ट से दोनों देश अपने सैनिकों को लौटाने लगते हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा। यदि चीन कोई भी हरकत करता है, तो हो सकता है दोनों देश जंग के मुहाने पर आ खड़े हों।

लेकिन, अगर सर्दियों में युद्ध होगा तो ये इस धरती के सबसे ऊंचे युद्ध क्षेत्र के लिए कितना चुनौती पूर्ण होगा, हमने 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में लड़ने वाले दो सैनिकों से जाना। एक हैं फुंचुक अंगदोस और दूसरे हैं सेरिंग ताशी।

चीन ने रास्ता ब्लॉक कर दिया था, आर्मी हेडक्वार्टर बोला अपनी जान बचाकर निकलो

रिटायर्ड हवलदार फुंचुक अंगदोस की उम्र 80 साल के करीब है। कहते हैं जब जंग हुई थी तो मैं बमुश्किल 23 साल का था। 45 साल पहले के वक्त की हर बात उन्हें अब भी याद है। वो कहानी सुनाने लगते हैं ‘अक्टूबर का महीना था, 26 अक्टूबर को हमें चुशूल से देमचोक भेजा था। हमारे पास गाड़ियां भी कम थीं। मैं क्वार्टर मास्टर था, तो मैंने पहले लड़ने वाले फौजियों को राइफल लेकर देमचोक भेज दिया। फिर तीन बार में हम बाकी जवान पहुंच पाए। अगले दिन 27 अक्टूबर को जंग शुरू हो गई। हमें अचानक वायरलेस पर मैसेज आया था कि जंग शुरू हो गई है।

रिटायर्ड हवलदार फुंचुक अंगदोस 80 साल के हैं। चीन के साथ 1962 की जंग लड़ चुके हैं, तब इनकी उम्र 23 साल थी।

जब हम देमचोक पहुंचे तो चीन ने रास्ता ब्लॉक कर दिया था। हम पोस्ट पर पहुंचे और पूरे दिन लड़ते रहे। लेकिन फिर हम लोग वहां फंस गए। हमारे कर्नल ने आर्मी हेडक्वार्टर को फोन किया कि हमें बचाने के लिए एयर अटैक करना चाहिए। लेकिन आर्मी हेडक्वार्टर ने मना कर दिया। वो बोले, अपनी जान बचाकर निकल जाओ।

एक दिन और पूरी एक रात हम लड़ते रहे। हमारे पास खाने को कुछ बादाम, अखरोट और काजू थे, जो दिन में ही खत्म हो गए थे। अगले दिन रात को 12 बजे सीजफायर लग गया। इस युद्ध में मेजर शैतान सिंह शहीद हो गए। उनके साथी जवान भी मारे गए। अपने जवानों के साथ जब सीजफायर के बाद हम उस जगह पहुंचे, जहां मेजर शैतान सिंह शहीद हुए थे। तो वहां उन्हें एक-दो डेडबॉडी मिलीं। वो शव हथियार के साथ जम चुके थे। हम हथियार को खींचते तो शरीर के टुकड़े भी साथ निकलकर आ रहे थे।

चुशूल के जिस इलाके में हमारे यूनिट ने लड़ाई लड़ी, वहां पूरी सर्दियों में दो से तीन फुट बर्फ जमा रहती है। अक्टूबर के आखिरी तक तो इतनी सर्दी हो जाती है कि सब जम जाता है। उस तापमान में हमारे जवानों के लिए काफी मुश्किल होती है। उनके हाथ जम जाते हैं और चलना भी मुश्किल होता है।

अपनी पोती के साथ रिटायर्ड हवलदार फुंचुक अंगदोस। फुंचुक कहते हैं कि इस बार चीन के साथ युद्ध हुआ तो जीत हमारी ही होगी क्योंकि अब 1962 जैसी भारत की स्थिति नहीं है।

तब और अब के वक्त को याद कर फुंचुक मुस्कुराते हैं। कहते हैं, तब हमारे सैनिकों के पास लड़ने के लिए सिर्फ एलएमजी, राइफल, एमएमजी और मोर्टार था। उसके अलावा कोई बड़ा हथियार नहीं था। अब तो न जाने कितने बड़े-बड़े हथियार हैं हमारे पास। इसलिए इस बार युद्ध हुआ तो हम ही जीतेंगे।

फुंचुक के मुताबिक, चीन पर भरोसा नहीं करना चाहिए। वो कहते हैं, सुनने में आया है कि फिलहाल वहां शांति है, लेकिन चीन अक्टूबर के महीने में कुछ कर सकता है। इस सवाल पर कि अक्टूबर के महीने में ही क्यों, तो वो कहते हैं, क्योंकि वो सर्दी का मौसम है ना और तब हमारे इंडियन लोगों को दिक्कत होती है और चीन इसका फायदा उठाता है।

हमें बार-बार लोड कर फायर करना होता था, लेकिन चीन के पास ऑटोमेटिक हथियार थे

रिटायर्ड हवलदार सेरिंग ताशी। उम्र तकरीबन 82 साल। चीन के साथ जब जंग हुई उससे दो साल पहले ही सेना में शामिल हुए थे। जंग की अपनी आपबीती सुनाते हुए कहते हैं, ‘बात डीबीओ दौलत बेग ओल्डी इलाके की है। मैं छुट्‌टी जाने के लिए आया था। सुबह छुट्‌टी जाना था। रात के 12 बजे फायरिंग शुरू हो गई। वहां एक नई जाट यूनिट आई थी, तो मुझे उनके साथ रख दिया। क्योंकि उस इलाके के रास्ते सिर्फ मुझे मालूम थे।

रिटायर्ड हवलदार सेरिंग ताशी चीन के साथ जब जंग हुई उससे दो साल पहले ही सेना में शामिल हुए थे।

मैं उन सैनिकों को लेकर दूसरे पोस्ट के लिए निकल गया। हमें वहां अपनी सेना की मदद के लिए जाना था, लेकिन हम वहां तक नहीं पहुंच सके। रास्ते में दो छोटी पहाड़ियां थीं, दोनों पहाड़ियों के बीच से हमें निकलना था, लेकिन चीन वहां तक आ चुका था।

सेरिंग कहते हैं, 'तब समय और सेना दोनों अलग थीं। चुशूल और दौलत बेग ओल्डी में एक ही वक्त पर फायरिंग हो गई थी। तब हमारे पास आदमी कम थे, ब्रिगेड तक नहीं था। 2 यूनिट भर थे। अब तो मेरे ख्याल से बहुत होंगे। अब तो हथियार भी बहुत ठीक-ठाक हैं।

तब तो सिर्फ थ्री नॉट थ्री होता था, जिसे बार-बार लोड कर फायर करना होता था। इतनी देर में चीन जल्दी-जल्दी फायर कर देता था क्योंकि उनके पास ऑटोमेटिक वेपन थे। हमारे पास तो उस वक्त घोड़े भी नहीं थे।'

अपने पोतियों के साथ रिटायर्ड हवलदार सेरिंग ताशी। ताशी कहते हैं 1962 के युद्ध के समय पहाड़ियों पर बर्फ ज्यादा थी। हमारे पैर बर्फ के अंदर चले जाते थे।

जाट यूनिट के जो जवान वहां जंग लड़ने आए थे, ठंड और बर्फ के बीच उनके हाथ गल गए। उंगलियों में बर्फ से जख्म हो गए। जख्म इतने गहरे थे कि उन साथियों को हाथ से खाना खिलाना पड़ता था। घायल हथेलियों की वजह से हमें पीछे हटना पड़ा। वहां इतनी बर्फ थी कि आधे बूट बर्फ में धंस जाते थे। हम तेज दौड़ भी नहीं सकते थे, क्योंकि पैर बर्फ में चले जाते थे।

उस जंग में चीनी सेना हमारे कुछ जवानों को पकड़कर भी ले गई थी। हालांकि, बाद में उन लोगों को छोड़ दिया गया, लेकिन फिर उन्हें वापस जंग में रखने की जगह घर भेज दिया था। सेरिंग ताशी कहते हैं कि उन्हें जंग के बाद फिल्मों से पता चला कि चीन के सैनिक हिंदी-चीनी भाई-भाई बोलते हैं, जबकि वहां कभी ये नहीं सुना था।

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