पुलिसबल की कम संख्या चिंताजनक, समय पर पुलिस सुधार होते तो कोरोना से जंग आसान होती - News in hindi

Breaking

Home Top Ad

Responsive Ads Here

Post Top Ad

Responsive Ads Here

बुधवार, 10 जून 2020

पुलिसबल की कम संख्या चिंताजनक, समय पर पुलिस सुधार होते तो कोरोना से जंग आसान होती

कोरोना त्रासदी से सीधे तौर पर जूझ रहे स्वास्थ्यकर्मियों, सफाईकर्मियों और पुलिसकर्मियों के लिए चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। अनलॉक के दौर में सड़कों पर बढ़ती संख्या कोरोना योद्धाओं के सम्मुख नई-नई स्थितियां ला रही है।

अन्य मुल्कों के मुक़ाबले हमारे संघीय ढांचे में कानून व्यवस्था राज्य सूची का विषय है और उसे अमली जामा पहनाने वाला पुलिसतंत्र संबंधित राज्य सरकारों के अधीन होता है। पुलिस के प्रति हर राज्य सरकार का अलग-अलग नजरिया भी जग जाहिर है, मसलन किसी राज्य सरकार के लिए पुलिस पहली प्राथमिकता है तो किसी राज्य सरकार की नजर में पुलिस आवश्यक बुराई स्वरूप है।

आंकड़े बताते हैं कि जहां जम्मू कश्मीर, पंजाब और उत्तर पूर्वी राज्यों में पुलिसकर्मियों की उपलब्धता प्रति एक लाख की आबादी पर 500 से ऊपर है तो वहीं उत्तरप्रदेश, बिहार, आंध्रप्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में यह उपलब्धता 100 प्रति लाख के आस-पास है। संयुक्त राष्ट्र मानदंड यह उपलब्धता 230 प्रति लाख होने की बात करते हैं।

130 करोड़ से अधिक की आबादी वाले देश में पुलिसकर्मियों के स्वीकृत पदों की संख्या तकरीबन 28 लाख ही है जिसमें 25-30% पद खाली होने के कारण पुलिस की राष्ट्रीय उपलब्धता का औसत आंकड़ा 150 तक ही पहुंचता है। इसलिए लगता है कि यदि समय रहते ये पद भी भरे गए होते तो प्रति लाख जनसंख्या की सेवार्थ 185 पुलिसकर्मी सुलभ हो सकते थे, जो इस समय पुलिस का काम आसान बनाते।
इस समय कोविड-19 से प्रभावित अन्य देशों में भारत के मुकाबले उपलब्ध पुलिस बल पर भी नजर डालना उचित होगा। इस महामारी से सबसे त्रस्त देश अमेरिका मे पुलिसकर्मियों की प्रतिलाख उपलब्धता 298, स्पेन में 533, इटली में 456, फ़्रांस में 340, जर्मनी में 381, इंग्लैंड में 211 है, जो भारत की 150 उपलब्धता से काफी अधिक है। एशियाई देशों में भी प्रति लाख पुलिसकर्मियों की उपलब्धता उतनी खराब नही हैं।

इसी रिपोर्ट के मुताबिक चीन में यह 143, पाकिस्तान में 181, बंगालदेश में 125, म्यांमार में 170, श्रीलंका में 424, नेपाल में 193 है। पुलिसकर्मियों की संख्या का महत्व इसलिए है क्योंकि सटीक इलाज़ के अभाव में कोरोना 19 से निपटने में लॉकडाउन को ही सबसे प्रभावी और असरदार माना गया।

इंदौर, जयपुर और दिल्ली के निज़ामुद्दीन जैसे इलाकों मे स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के मसले अलग से हैं। अप्रवासी मजदूरों से जुड़े मसलों की फेहरिस्त तो और भी लंबी होती जा रही है। तात्पर्य यह है कि पुलिस के सामने चुनौतियों का अंबार हैै।
2018 में सीएसडीएस द्वारा किए एक सर्वे में पुलिस पर आमजन का भरोसा सेना, न्यायपालिका, जनप्रतिनिधियों, चुनाव आयोग के मुक़ाबले काफी कम था। कोविड-19 से लड़ाई में संसाधनों की कमी और तमाम कठिनाइयों के बावजूद पुलिस जिस शिद्दत से जनता की कसौटी पर खरा उतरने का प्रयास कर रही है उसे देखते हुए इस भरोसे में बढ़ोत्तरी की उम्मीद की जानी चाहिए।

अतः इस संकट से निजात मिलने के उपरांत लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़े पुलिस सुधारों की तरफ भी ध्यान की उम्मीद है। माना कि पुलिस राज्य सूची का विषय है लेकिन भारत जैसे बड़े राष्ट्र में पुलिस सुधार के लिए जिस स्तर की इच्छाशक्ति और राजनीतिक पहल की जरूरत है वह केंद्र सरकार के आगे आए बिना संभव नहीं है।

राज्य सरकारों के रुख को तो इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि जहां 2011-15 के दौरान पुलिस पर राज्य अपने कुल बजट का 4.4% खर्च कर रहे थे उसे 2015-19 के बीच 4% कर दिया। ऐसे में पुलिस सुधारों को अकेले राज्य सरकारों के भरोसे और अधिक छोड़े रखना ठीक नहीं होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
डॉ. महेश भारद्वाज, भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/3dS4C6e https://ift.tt/2Ye0KWs

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Bottom Ad

Responsive Ads Here

Pages